बुधवार, 27 मई 2015

सच का ओज..



सच का ओज भरम क्या जाने
रौशनी मेरी तम क्या जाने
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अंधियारे को झुकने वाले
एक दीप का दम क्या जाने
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दुधिया रंग नहाने वाले
लालटेन का गम क्या जाने
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मटई* प्याल की सौंधी बातें         (मटई/मटिया (भोजपुरी)= मिट्टी)
पालथीन के बम क्या जाने
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हमको सिर्फ है साकी से काम
और मय कोई हम क्या जाने
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बात बात मुकरने वाले
क्या होती है कसम क्या जाने
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क्या है ‘जान’ बशर का मजहब
गो ये दैरो-हरम* क्या जाने                 (दैरो हरम = मंदिर-मस्जिद)

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मौलिक व् अप्रकाशित (c) ‘जान’ गोरखपुरी
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रविवार, 24 मई 2015

गज़ल आरती बन गई है..



मुहब्बत का मै आसरा चाहता हूँ
तेरे इश्क में डूबना चाहता हूँ

जहाँ से सुखन की है गंगा निकलती
दिलो-जान वो चूमना चाहता हूँ

सुने है बहुत तेरे जलवों के किस्से
सरापा तेरा सामना चाहता हूँ

बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना
वली  खत्म ये सिलसिला चाहता हूँ           (वली = सर्वज्ञ)

दिवाना बनाया है तो वस्ल भी दो
चिराग-ए-सहर हूँबुझा चाहता हूँ’’

 गज़ल आरती बन गई है मेरी अब
कि हर्फ़न् तुझे पूजना चाहता हूँ             (हर्फ़न् =अक्षरशः)


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       (c)‘जानगोरखपुरी

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मंगलवार, 19 मई 2015

गम नही मुझको...

गम नही मुझको तो फ़र्द होने पर               (फ़र्द = अकेला)
दिल का पर क्या करूं मर्ज होने पर

उनको है नाज गर बर्क होने पर                
मुझको भी है गुमां गर्द होने पर

चारगर तुम नहीं ना सही माना
जह्र ही दो पिला दर्द होने पर

अपनी हस्ती में है गम शराबाना
जायगा जिस्म के सर्द होने पर

डायरी दिल की ना रख खुली हरदम
शेर लिख जाऊँगा तर्ज होने पर

तान रक्खी है जिसने तेरी चादर
भूलता क्यूँ उसे अर्श होने पर

माल साँसों की, कर हर घड़ी सिमरन
ठगना क्या?वख्त-ए-मर्ग होने पर

जुर्म उसका होना अन्नदाता था
लटका सूली दिया कर्ज होने पर

बात सच्ची कहूँ सुन  मिले चाहे
बद्द्दुआ लाख़ ही तर्क होने पर

मुफलिसी का तेरी तू है जिम्मेवार
है गुनह रहना चुप फ़र्त होने पर                 (फ़र्त = ज्यादती/जुल्म)

रात सोलह दिसम्बर बारह दिल्ली
शर्मसार आदमी मर्द होने पर

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       (c) ‘जान’ गोरखपुरी
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शनिवार, 9 मई 2015

खुद से खफा हूँ...



खुद से खफा हूँ जिन्दगी मक्तल* हुयी जाती है                             मक्तल*= कत्लगाह
कोई खता गो आजकल पल पल हुयी जाती है

जबसे मुझे उसने छुआ है क्या कहूँ हाले दिल
शहनाई दुनिया धड़कने पायल हुयी जाती है

अब जबकि मै मानिन्द-सहरा सा होता जाता हूँ                        मानिन्द-सहरा*= मरुस्थल की तरह
है क्या कयामत ये??जुल्फ वो बादल हुयी जाती है

शम्मा जलाकर मेरे दिल का दाग जिसने पारा*                              पारा*= बनाना/दागना
स्याही वही अब चश्म का काजल हुयी जाती है

सदके ख़ुदा को जाऊ मै क्या खूब रौशन है नूर
नजरें मेरी टुक देखते घायल हुयी जाती है

गजलें मेरी सुन फूल गुलशन में नये खिलते हैं
दादे-शजर जैसे नयीं कोंपल हुयी जाती है

इस मस्त पुरवाई में तुम अब चांदनी बन आओ
तन्हाई की रातें बड़ी बेकल* हुयी जाती है                                                   बेकल*= बेचैन
   

मुझको कभी अपनी अना पे नाज आता था ‘’जान’’
अब कायनात उसकी तहे आँचल हुयी जाती है


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               (c) ‘जान’ गोरखपुरी
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बुधवार, 6 मई 2015

इश्क क्या है,इक दुआ है... (एक रुक्नी गज़ल)

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इश्क क्या है
इक दुआ है

दिल इबादत
कर रहा है

अपना अपना
कायदा है

पत्थरों में
भी खुदा है

कौन किसका
हो सका है

नाम की ही
सब वफा है

बस मुहब्बत
आसरा है

बिन पिये दिल
झूमता है

आँख उसकी
मैकदा है

फूल कोई
खिल रहा है

कातिलाना
हर अदा है

क्या हुआ गर
बेवफा है

जहर भी तो
इक़ दवा है

अब मुकम्मल
फैसला  है

तुम हो और ना
दूसरा है

बस गज़ल अब
हमनवा है

मै रदिफ वो
काफिया है

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               (c) ‘जान’ गोरखपुरी
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