खुद से खफा हूँ जिन्दगी मक्तल* हुयी जाती है मक्तल*= कत्लगाह
कोई खता गो आजकल पल पल हुयी जाती है
जबसे मुझे उसने छुआ है क्या कहूँ हाले दिल
शहनाई दुनिया धड़कने पायल हुयी जाती है
अब जबकि मै मानिन्द-सहरा सा होता जाता हूँ मानिन्द-सहरा*= मरुस्थल की तरह
है क्या कयामत ये??जुल्फ वो बादल हुयी जाती है
शम्मा जलाकर मेरे दिल का दाग जिसने पारा* पारा*= बनाना/दागना
स्याही वही अब चश्म का काजल हुयी जाती है
सदके ख़ुदा को जाऊ मै क्या खूब रौशन है नूर
नजरें मेरी टुक देखते घायल हुयी जाती है
गजलें मेरी सुन फूल गुलशन में नये खिलते हैं
दादे-शजर जैसे नयीं कोंपल हुयी जाती है
इस मस्त पुरवाई में तुम अब चांदनी बन आओ
तन्हाई की रातें बड़ी बेकल* हुयी जाती है बेकल*= बेचैन
मुझको कभी अपनी अना पे नाज आता था ‘’जान’’
अब कायनात उसकी तहे आँचल हुयी जाती है
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(c) ‘जान’ गोरखपुरी
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