शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

'हमने तो कतरा समझा था'




हमने तो कतरा समझा था
दर्द तेरा अब समंदर लगता है।

माना कि दुआए सुनी जाती है
सदियों-सदियों मगर होने में असर लगता है।

तुम चार दिनों कि कहते हो जिंदगी
मुझको तो युगों का सफ़र लगता है।

जिधर देखो जंगल ही जंगल है मकानों के
शहर से अच्छा तो मुझे,गाँव का घर लगता है।

दंगे-फसाद,हत्या-लूटपाट,दरिंदगी-बलात्कार
सुबह का अखबार न पढू अब तो यही बेहतर लगता है।

घर से निकलती है अब जब बहनें
सच कहता हूँ डर लगता है।

इस महगाई ने कैसी कमर तोड़ी है,
बहुत बुझा-बुझा सा घर का वो बुढा-सजर लगता है।

एक जरा से कागज के टुकड़े की खातिर,
महीनो-महीनो सरकारी दफ्तर का चक्कर लगता है।

सुबह जाइए, दोपहर को आइये, शाम में साहेब मिलेंगे
फरियादी बंधक,तानाशाह अफसर लगता है।

इत्मिनान से पढ़ के तुमफिर भुला देना ए-खुद़दारों
तुम देते हो तभी तो कदम-कदम पर पैसों का चोकर लगता है।

जबसे देखे है मैंने पैबन्द माँ के दामन में,
काँटों से भरा मुझको बिस्तर लगता है।

                                    -जान

                                ६ फरवरी १५

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

योगदान देने वाला व्यक्ति