तेरी इस दुनिया में हर इक चीज की कीमत है
वफ़ा नही बिकती मेरे मालिक,चलो इतनी तो गनीमत है।
एक घूंट पिलाके,कहते है अब मत पीजिए
शरीफ लोग है ये,बड़ी साफ़ इनकी नीयत है।
अजीब तमाशा बना रखा है, वाह रे खुदा....मेरा
के उन्हें हमसे नफरत उतनी,जितनी हमें मोहब्बत है।
वो आये भूलकर भी,हमारे दर पे क़यामत है
हमें है गरज उनकी,उन्हें हमारी क्या जरुरत है।
न खुशी की है तमन्ना,न गम से है शिकायत
बदली बदली सी क्यों 'जान' अपनी तबियत है।
ख़त उसके मेरे साथ ही जला देना...मेरे दोस्तों
बस यही अब.......आखिरी चाहत है।
गुमनाम मौत लिख रहा हूँ,अपने हाथों खुद अपनी
क्या खूब अपनी भी 'जान' वसीयत है।
-'जान'
२६ अगस्त ०४
'पुरानी डायरी के झरोखे से'
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