रविवार, 18 जनवरी 2015

''परिस्थिति बनाम कर्तव्यनिष्ठा''

                                 आधुनिक विज्ञान और तकनीकी ने जहां एक तरफ़ हमारे कामकाज को आसान बना दिया है ,वहीं  दूसरी ओर हमें और भी अधिक व्यस्त  किया है । और बहुत मामलों में युँ कहे की अस्त -व्यस्त किया  है तो कोई अतिशयोक्ति  नही होगी।  इस कारण हम लगभग हर काम जल्दीबाज़ी में करने के आदी  हो गए है । हर व्यक्ति यही चाहता है कि सबकुछ,सबसे अच्छा ,और सबसे कम समय  में हो जाये । खैर ऐसा सभी क्षेत्र में संभव तो नही है,पर फिर भी हम बहुत से कार्यो  को आवश्यकता के अनुसार समयसीमा में बांध  सकते है। जिसको हम सभी को समझने की परम आवश्यकता है,प्रथमतः हमें इस विषय में गूढ़ विचार करना ही होगा।
                                   किसी कार्य को शुरु करने ,संपादन, पूर्ण होने में ढृढ़ संकल्प और परिस्थितियों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है ,संकल्प लेना न लेना  अथवा किस हद तक लेना ,ये अपने हाथ में है। पर परिस्थिति के सन्दर्भ में कुछ कहा नहीं जा सकता । परिस्थितिवश कोई कार्य शुरू होकर तुरंत पूर्ण भी हो सकता है और कोई  हजार कोशिशों  के बावजूद शुरू भी न हो पाये ऐसी भी स्थिति बन सकती है। अब परिस्थिति को कैसे नियंत्रित किया जाये, यह बड़ा ही महत्वपूर्ण और भ्रमित करने वाला प्रश्न है।पहले तो हम परिस्थिति को ही समझने का प्रयास करते है,परिस्थिति अर्थात हमारे चारो तरफ की स्थिति,जिसमे सबकुछ समाविष्ट है जैसे -  आपका स्वास्थ,पारिवारिक समस्यायें, योजनायें, आर्थिक स्थिति, आपके सगे-सम्बन्धियों मित्र आदि का प्रभाव और इन सभी प्रभाव  के अनुरूप आपका मनोभाव ! अब प्रश्न यह उठता है कि-- क्या व्यक्ति परिस्थिति के अधीन है? या फिर परिस्थिति को नियंत्रित भी किया जा सकता है?      

                                   "सबहीें नचावत राम गोसाई "

                                         आपने श्रीरामचरितमानस की यह पंक्ति तो सुनी ही होगी,जिसका सीधा-सरल अर्थ यह है कि हम सब विधाता की हाथ की कठपुतली है,जो  भगवान की इच्छा होगी वही होगा ।हमारे हाथ में फिर क्या बचा ?आइये हम उसी रामचरितम् के भगवान राम  के जीवनचरित्र को देखे,जहाँ से यह पंक्ति उदित हुयी है---
                                          क्या राम का सारा जीवन परिस्थितियों के अधीन नही रहा ?जन्म शिक्षा-दीक्षा ,विवाह ,वनगमन ,और राम-रावण युद्धः। परिस्थितिवश भगवान ने अवतार लिया ,परिस्थितिवश गुरु  विश्वामित्र के साथ जाना पड़ा ,परिस्थितिवश विवाह हुआ ,वनगमन माता कैकेयी के मनोभाव से उत्पन्न परिस्थिति का  परिणाम थी, सीताहरण की परिस्थिति के कारण राम-रावण युद्ध हुआ, क्या यह सभी पूर्वनियोजित भगवान की लीला थी ? इस प्रश्न का उत्तर जो भी हो पर हम यह स्पष्टरूप में  देखते हैं कि स्वयं भगवान भी परिस्थिति के अधीन रहें। पर मूलबात  यह नही है, मूलबात यह है कि परिस्थिति के स्वीकार्य  के साथ-साथ अपनी कर्तव्यनिष्ठा और प्रत्येक दशा में अपने विचारों की दृढ़ता ।श्रीराम प्रभु की प्रभुता इसी दृढ़ता में निहित  है कि चाहे जैसी भी परिस्थिति आई उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार  किया तथा अपनी कर्तव्यनिष्ठा  और धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा ।
                                         आज के युग में उपरोक्त विचारों की कितनी प्रासंगिकता है ? यह हम महान विभूतियों की जीवनियाँ उठकर देख सकते हैं--चाहे वो आधुनिक युग  के हों या किसी भी कालखण्ड  के।  
                                     
                                                                                                                                     -कृष्णा मिश्रा


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