ये हैं मरासिम* उसकी मेरी ही निगाह के (मरासिम = रस्में)
तामीरे-कायनात* है जिसका ग़वाह के (तामीरे-कायनात = सृष्टि का निर्माण)
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सजदा करूँ मैं दर पे तेरी गाह गाह के
पाया खुदा को मैंने तो तुमको ही चाह के
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हाँ इस फ़कीरी में भी है रुतबा-ए-शाह के
यारब मै तो हूँ साए में तेरी निगाह के
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जो वो फ़रिश्ता गुजरे तो पा* खुद-ब-खुद लें चूम (पा = पाँव)
बिखरे पडे हैं फूल से हम उसकी राह के
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छूटा चुराके दिलको वबाले-जहाँ* से मैं
ऐ “जान” हम हुए हैं मुरीद इस गुनाह के
(वबाले-जहाँ = दुनिया भर के बवाल से) सही शब्द वबाल है जो अब आम बोल चाल में बवाल बोला जाने लगा है!
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(c) "जान" गोरखपुरी
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