मंगलवार, 10 मार्च 2015

जला न दे...


बस कर ये सितम के,अब सजा न दे
हय! लम्बी उम्र की तू दुआ न दे।


अपनी सनम थोड़ी सी वफ़ा न दे
मुझको बेवफ़ाई की अदा न दे।


गुजरा वख्त लौटा है क्या कभी?
सुबहो शाम उसको तू सदा न दे।


कलमा नाम का तेरे पढ़ा करूँ
गरतू मोहब्बतों में दगा न दे।


इनसानियत को जो ना समझ सके
मुझको धर्म वो मेरे खुदा न दे।


रखके रूह लिफ़ाफे में इश्क़ डुबो              
ख़त मै वो जिसे साकी पता न दे।


न किसी काम का है हुनर-ए-सुखन         ( हुनर-ए-सुखन  =  गज़ल/गीत का हुनर)
जब दो जून की रोटी, कबा न दे।             (कबा = कपड़े)


लिखता हूँ जिगर में आग को लिए
तुझको शेर मेरा उफ़! जला न दे।


रहने दें सता मत जिन्दगी उसे
परदा ‘’जान’’ तेरा गो हटा न दे।




                                             -''जान'' गोरखपुरी
                                              १० मार्च २०१५

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