बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

'कलमा'




तू मेहरबां है के खफा है मुझे पता तो लगे..
  गुलशन में बातें सुलग रहीं है..जरा हवा तो लगे..

मोहब्बतों में ऐसा जलना भी क्या?बुझना भी क्या?
    जले तो आंच न आये,बुझे तो न धुँआ लगे..

अजब हो गया है अब तो चलन मुहब्बतों का..
  मै वफ़ा करूँ तो है उसको बुरा लगे...

    वो चाहता है के मै उसके जैसा बन जाऊ...
 है जो हमारे दरमियाँ न किसी को पता लगे..

  इस साल भी बेटी न ब्याही जाएगी...
गन्ने/गल्ले का दाम देख किसान थका-थका सा लगे..

ये कैसी मेरे शहर ने की है तरक्की...
जिस शख्श को भी देखता हूँ....है बुझा-बुझा सा लगे..

सरकार में तुम्हारी वहशी दरिन्दे लार टपकाये फिरते है?
इस समाजवाद में ,समाजवादी ठगा-ठगा सा लगे..

किसने बीज बोये हैं दंगों के मेरे चमन में...
हाय!इस गुलिस्तां को किसी की नजर न ख़ुदा लगे..

तेरे काबां की मै क्या कहूँ बात जाविदाँ ए-दोस्त
मेरे मंदिर में मुझको मेरा भगवान बिल्कुल तेरे खुदा सा लगे..


तेरे अजान जैसे हो शंखनाद मेरे शिव के...
आरती मेरे घर की मुझको कलमा सा लगे...



                              -जान गोरखपुरी

                              २५ फ़रवरी २०१५

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