शनिवार, 31 जनवरी 2015

'झमेला'

ये दुनिया एक झमेला
इस झमेले में मै अकेला।

बड़ी प्रगति पर है दुनिया
गुरु गुरु न रहा,न चेला-चेला।

बेआबरू होकर ईमान,जिस्म छोड़ गया
हसीनो ने खूब खेल खेला।

मिट्टी-मिट्टी में मिल जाएगी,
जिस्म है ये मिट्टी का ढ़ेला।

आओ दोस्त बन जाये हम दोनों,
तुम भी अकेले मै भी अकेला।

मै अपने रस्ते पे मस्त चल दिया
जाने कहाँ गया, मुसाफिरों का रेला।

ये इश्क है आग का दरिया ए-जिगर
हम कहाँ जाने वाले थे,जाने किसने धकेला।

मै ये समझा के तू आ गयी
पास कहीं महक रही थी वेला।

वो हरा-भरा पेड़ सूखने लगा है
फिजा में ये जहर किसने है उड़ेला।

हर-बार लगता है कुछ अलग कुछ नया सा
वो चितेरा है बड़ा अलबेला।

न रखिये शिकायत और न शिकवा किसी से
अकेले आये थे हम जान जाना है अकेला।
                     
                            --जान

            पुरानी डायरी के झरोखे से

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