सोमवार, 26 जनवरी 2015

'आज सुबह देखा तो'


आज सुबह देखा तो वो गेसू सुखा रहे थे
जैसे काले बादल बिजलियाँ गिरा रहे थे । 

हाय वो गाल पे ढलकी-ढलकी बूंदें,
 हम भी उनकी किस्मत से रश्क खा रहे थे । 

ये बेखुदी क़ैसी है छा रही... ?
उफ़ ये शबनमी झोंके; गेसुओं को जो उड़ा रहे थे। 

 ये बादलों की ओंट से,निकलता आफ़ताब
किस कदर साहिलों पे सितम ढा रहे थे। 

ये जो रंग आया है, सुर्ख-सिंदूरी तेरे बदन का.. 
किसके खूँ से आज तुम नहा रहे थे ।

                                                                    -'जान'

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