मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

हे शिव! जब तुम हो अनंत...






ॐकार, हूँकार
साकार,निराकार
शून्य,अशून्य
दिग,दिगम्बर
आवात,निर्वात
छड. छड...
कण कण..में व्याप्त
हे शिव!,हे डमरूधर!
हे शिव!,हे डमरूधर!


अशब्द अगम
शब्द प्रथम
तुम्हारे कंठ का हुंकार है।
ये सृष्टि समस्त
तुम्हारी नाभि का विस्तार है।
सहस्त्र-सहस्त्र चन्द्र
कोटि-कोटि अरुण तुम्हारे भाल हैं।
जटा तुम्हारी भव-उदभव मृरीचिका
लपेटे तम-तारुण भागीरथी सुशोभित कपाल है।
हे भैरव!,हे गंगाधर!
हे भैरव!,हे गंगाधर!




जीवन-मृत्यु
श्वाश-प्रश्वाश के सार हैं।
लय-प्रलय
त्रिनेत्र के आहार हैं।
तुम ही विलायक
तुम ही विलेय
विलीन तुममे त्राण-प्राण है।
तुम ही चित्र,चित्रित भी तुम्ही
तुमसा न चित्रकार है
हे महाकाल!,हे मुक्तेश्वर!

हे महाकाल!,हे मुक्तेश्वर!






भूत-भविष्य
दृश्य-अदृश्य कलाए हैं।
कोलाहल,हलाहल
कंठ मालाए हैं।
ग्रह-नक्षत्र
रुद्राक्ष-रमण भुजाए हैं।
बाघाम्बर,श्वेताम्बर
अनंत-मेखला अरुणीमाए हैं।
नित नवीन चरण हो रहा प्रसार है।
जब तुम हो अनंत
अनंत का यात्री नाथ मै,
पथिक हूँ तुम्हारा
हे प्रेमेश्वर!,हे भूतेश्वर!
हे प्रेमेश्वर!,हे भूतेश्वर!




              -कृष्णा मिश्रा

          महाशिवरात्रि,१७ फ़रवरी २०१५

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