कब तक लड़ता रहूँगा मै खुद से
सोचता हूँ अपने चेहरे का ये नकाब फेंक दूँ..!
सोचते थे जैसा....
दुनिया में वैसा.....कुछ भी नही
इक उम्र जिए जिसके सहारे.......
दिल के सारे वो ख्वाब फेंक दूँ..!
तुम हो ही नही कहीं शायद
कब तक तुमको ढूंढा करूँ.....
उठाते गिरते है ज़ेहन में जो..
ये सवालो-जवाब फेंक दूँ...!
सच्चे दिल से जो मांगों...
मिल ही जाता है,
लिखने वाले ने क्या खूब लिखा है
घर से उठाकर मै ये किताब फेंक दूँ..!
अँधेरे में ही जब जीना है
और फिर मर जाना है गुमनाम
खिड़की से मैं अपने
आफ़ताब फेंक दूँ..!!
-‘जान’
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