खुदा-न-खास्ता हो
के गम को,तेरे दामन से कोई वास्ता हो।
सादगी तेरे हुस्न ने पाई बहुत
वादी-ए-गुलशन में जैसे गुलाब कोई हँसता हो।
मेरी किस्मत में कहाँ?तेरी निगाह-ए-उल्फत
खुशियों को क्यों मुझसे राब्ता हो।
तेरे बगैर लौट आये मेरी खुशियाँ
आप ही बताओ गर कोई ऐसा रास्ता हो।
ये जो कहते है लोग मुझे,क्या गलत कहते है?
क्या कहेगा उसे कोई,जो हर शू में तुझे तलाशता हो।
देखता आता हूँ,एक ही सपना उम्र-ए-रफ़्ता
बंधी है मेरे आँख पे पट्टी,और उस बुत को तराशता हो।
-‘जान’
अप्रैल २००२
‘’पुरानी डायरी के झरोखे से’’
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