बस कर ये सितम के,अब सजा न दे
हय! लम्बी उम्र की तू दुआ न दे।
अपनी सनम थोड़ी सी वफ़ा न दे
मुझको बेवफ़ाई की अदा न दे।
गुजरा वख्त लौटा है क्या कभी?
सुबहो शाम उसको तू सदा न दे।
कलमा नाम का तेरे पढ़ा करूँ
गरतू मोहब्बतों में दगा न दे।
इनसानियत को जो ना समझ सके
मुझको धर्म वो मेरे खुदा न दे।
रखके रूह लिफ़ाफे में इश्क़ डुबो
ख़त मै वो जिसे साकी पता न दे।
न किसी काम का है हुनर-ए-सुखन ( हुनर-ए-सुखन = गज़ल/गीत का हुनर)
जब दो जून की रोटी, कबा न दे। (कबा = कपड़े)
लिखता हूँ जिगर में आग को लिए
तुझको शेर मेरा उफ़! जला न दे।
रहने दें सता मत जिन्दगी उसे
परदा ‘’जान’’ तेरा गो हटा न दे।
-''जान'' गोरखपुरी
१० मार्च २०१५
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें