गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

'बरसात के बुलबुले'












है ये वही मक़ाम जहाँ,
कभी हम-तुम मिले थे।
फिर आ गये वहीँ हम....

जहाँ से कभी चले थे।

तेरी हसीं वो बहार सी
कितने ही फूल आशियाँ में खिले थे।
नजरों से जो मिली थी नजरें
कितने ही चराग दिल में जले थे।


करवट बदल-बदल के कटती थी रातें
इशारों-इशारो में होती थी बातें....
बड़े ही दिलकश,
मोहब्बत के सिलसिले थे।



मै था छोड़ आया जहाँ को......

तेरे जिन कसमो वादों पे,
बरसात के पानी के
वो बुलबुले थे।


  -'जान
  अप्रैल २००५
  'पुरानी डायरी के झरोखे से'                                                         

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